A Heart touching Story of Garwali
(Garwal in Uttrakhand) Peron:-
MUST Read
---उंधारी क बाटा
इंटर पास करने के बाद पहली बार
13 जुलाई को सुबह नौ बजे
की बस से मैं पहाड़ से
निकला था। जीएमओयू की बस
मैं नेगी जी का ‘ना दौड़
ना दौड़ उंधरयूं का बाटा’ गीत
(Garwal in Uttrakhand) Peron:-
MUST Read
---उंधारी क बाटा
इंटर पास करने के बाद पहली बार
13 जुलाई को सुबह नौ बजे
की बस से मैं पहाड़ से
निकला था। जीएमओयू की बस
मैं नेगी जी का ‘ना दौड़
ना दौड़ उंधरयूं का बाटा’ गीत
बज रहा था, यह गीत मुझे
रुला रहा था गीत मेरी पहाड़ से
विदाई की पृष्ठभूमि में बज
रहा था मेरी आंख नम
हो रही थी. गांव छूटा, पहाड़
छूटा, देवदार की हवा और बांझ
की जड़ों का ठंडा पानी गटकने
की आदत भी छूटी। मैदान में
आकर शर्मा, सिंह बनकर
अपनी पहचान भी मिटा चुके हैं।
शुरू -शुरू के वर्षा में हर
छोटी मोटी चीज छूटने
का दर्द सालता रहा। यहां तक
की पड़ोस के गांव के बौड़ा,
का और काकी की भी याद
आती रही। जो मेरे नाम के साथ
मेरे पूरे परिवार का इतिहास और
जमीन जायदाद- गौड़ी भैंसी के
बारे में भी जानकारी रखते थे।
गांव के नौनिहाल जो कई बार
नंग- धडंग होकर एक साथ हाथ
पकड़ खेलते रहते भी बरबश यादों में
आते। गोकि वह मेरी उम्र से
काफी छोटे थे। मैं उनमें खुद के
बचपन को झांकने की कोशिश
करता। तिबारी में दबे पांव आने
वाली ‘बिरली’ याद आती,
याद आता किस तरह गांव का एक
मात्र पालतू कुत्ता वक्त बेवक्त
भौंकता रहता। सौंण,भादौं , के
महीने की घनधोर बरसात में
‘पटाल’ से लगातार गिरती धार
सालों तक कानों में बजती रही।
यादों का अंधड़ कई बार परदेश के
दर्द को और बढ़ा जाता। मगर
दिमाग में यादों को ठुंसे रखने
की एक सीमा है, फिर नए
सपनों के लिए भी तो दिमाग में
‘स्पेश’ रखनी है। आखिर इन
सपनों को पूरा करने के लिए
ही तो पहाड़ से भाग कर आए हैं।
जल्द से जल्द सैलरी बढ़ानी है,
फिर यहीं कहीं दिल्ली,
फरीदाबाद हद से हद देहरादून
की पढ़ी लिखि लड़की को ‘ब्यौंली’
बनाने का सपना सच करना है।
जिंदगी अतीतजीवी होकर
आगे नहीं बढ़ती, पहाड़ देखने में
या यूं कहें सपने में तो अच्छे लगते हैं,
पर इन्हे झेलना सचमुच कठिन है।
बैकग्राउंड मजबूत नहीं हो पाने के
कारण मैं तो बहुत कुछ नहीं कर
पाया, लेकिन बच्चों को वह
सबकुछ देना है जो मुझे
नहीं मिला।
हां उम्र की आखिरी ढलान पर
सारी जिम्मेदारी निभाकर
अपने गांव में फिर बस जाउंगा। तब
न मुझे कमाने की चिंता होगी, न
भविष्य की। बस किसी तरह
जिस जगह जन्म लिया वहीं पर
खाक भी हो जाऊं।
----------॥॥॥॥
------------॥॥॥॥॥॥॥-------
अब उम्र उस मुकाम पर भी पहुंच गई
है। जो सपने देखे थे वो आधे अधूरे ढंग
से पूरे भी हो गए हैं। पहाड़ आज
भी यादों में सताता है, सच
मानो तो दर्द अब कुछ
ज्यादा ही बढ़ गया है। पर, फिर
कहीं कुछ बदल गया है। नयार, हेंवल
और रवासन, भागीरथी,
गंगाजी में अब तक
कितना ही पानी बह चुका है।
एक तो शरीर कमजोर हुआ है-
ब्लडप्रेशर, डायबटीज
जैसी शहरी बीमारियां शरीर
में घर कर गई हैं। पहाड़ की उतार
चढ़ाव से घुटने में भी दर्द उभर
आता है। मैं तो फिर भी यह सह लूं,
पर ‘मिसेज’ का क्या करुं। वह
तो सड़ी गरमी में भी ‘फ्लैट’
छोड़ने को तैयार नहीं। उसके पास
कई तर्क हैं, बीमारी, मौसम और
सबसे बड़ा घर खाली छोड़ने पर
चोरी का। बंद घरों में
चोरी की खबर वह कुछ
ज्यादा ही जोर से पढ़ती है। कई
बार मैं भी खुद को उसके तर्क से
सहमत पाता हूं, जब वह कहती है
कि पहाड़ में शौचालय तक
का इंतजाम नहीं है।
वहां ताजा बाजारू सब्जी और
फल के लिए भी कोटद्वार,
ऋषिकेश जाने वाले टैक्सी वाले
की चिरौरी करनी पड़ती है।
और फिर तबियत अचानक
बिगड़ने पर अच्छे डॉक्टर कहां हैं,
‘धार -खाल’ के सरकारी डॉक्टर
के भरोसे भला गांव में रहने
का रिस्क लें। वह खुद के बजाय मुझे
मेरी तबीयत का हवाला देकर
रोक लेती है।कई बार सोचता हूं
कि गांव में कम से कम दो कमरे और
एक शौचलय का पक्का मकान
बना दूं। कोई नहीं भी आए तो मैं
खुद ही जाकर महीने दो महीने
बिता आऊं। भतीजे की ‘ब्वारी’
दो रोटियां तो दे ही देगी,
हमारी फुंगड़ी भी तो वही लोग
खा रहे हैं। पर डरता हूं कि मैं
तो बीमारियों का भोजन हूं,
साल दो साल ही और इस
धरती का वासिंदा हूं। मेरे पीछे
गांव के मकान
की क्या उपयोगिता, मेरे बाद
बच्चे मुझे कोसेंगे ही। इस कशमकश
में दिन तेजी से बीत रहे हैं, और
मेरी बैचेनी भी।मैं अब
भी दुविधा में झूल रहा हूं। यहां में
‘अजनबी’ हूं तो वहां पर ‘अनफिट’।
मुझे पहाड़ में दिल्ली की ऐश
चाहिए, पर यह संभव नहीं।
आखिर वह पहाड़ है,
दिल्ली नहीं। बस अब
कभी कभी डीवीडी पर
गढ़वाली गाने बजा कर खुद
को तृप्त कर लेता हूं। घर में
गढ़वाली बोली पर नियंत्रण
रखने वाला मैं अकेला व्यक्ति हूं,
बाकि सब ‘कटमाली’ हैं।
गढ़वाली गाने सुनते वक्त मैं एक
भाषायी अल्पसंख्यक की तरह
भय महसूस करता हूं।
मै पक्का कर चुका था कि एक
दिन फिर इन हरे भरे
जंगलों कोहरे से लिपटे पहाड़ों में
फुरसत के दिन बिताऊंगा। मैं
दृढ़संकल्प था कि फिर से काफल,
आम, जामुन के पेड़ों पर चढ़कर
रसीले फलों का जमा लूंगा।
आज 45 बरस बाद मेरा यह संकल्प
बस सपना बन कर रहा गया।
ना दौड़ ना दौड मैं अब
भी सुनता हूं। यह गीत अब मुझे
धिक्कारता है।
रुला रहा था गीत मेरी पहाड़ से
विदाई की पृष्ठभूमि में बज
रहा था मेरी आंख नम
हो रही थी. गांव छूटा, पहाड़
छूटा, देवदार की हवा और बांझ
की जड़ों का ठंडा पानी गटकने
की आदत भी छूटी। मैदान में
आकर शर्मा, सिंह बनकर
अपनी पहचान भी मिटा चुके हैं।
शुरू -शुरू के वर्षा में हर
छोटी मोटी चीज छूटने
का दर्द सालता रहा। यहां तक
की पड़ोस के गांव के बौड़ा,
का और काकी की भी याद
आती रही। जो मेरे नाम के साथ
मेरे पूरे परिवार का इतिहास और
जमीन जायदाद- गौड़ी भैंसी के
बारे में भी जानकारी रखते थे।
गांव के नौनिहाल जो कई बार
नंग- धडंग होकर एक साथ हाथ
पकड़ खेलते रहते भी बरबश यादों में
आते। गोकि वह मेरी उम्र से
काफी छोटे थे। मैं उनमें खुद के
बचपन को झांकने की कोशिश
करता। तिबारी में दबे पांव आने
वाली ‘बिरली’ याद आती,
याद आता किस तरह गांव का एक
मात्र पालतू कुत्ता वक्त बेवक्त
भौंकता रहता। सौंण,भादौं , के
महीने की घनधोर बरसात में
‘पटाल’ से लगातार गिरती धार
सालों तक कानों में बजती रही।
यादों का अंधड़ कई बार परदेश के
दर्द को और बढ़ा जाता। मगर
दिमाग में यादों को ठुंसे रखने
की एक सीमा है, फिर नए
सपनों के लिए भी तो दिमाग में
‘स्पेश’ रखनी है। आखिर इन
सपनों को पूरा करने के लिए
ही तो पहाड़ से भाग कर आए हैं।
जल्द से जल्द सैलरी बढ़ानी है,
फिर यहीं कहीं दिल्ली,
फरीदाबाद हद से हद देहरादून
की पढ़ी लिखि लड़की को ‘ब्यौंली’
बनाने का सपना सच करना है।
जिंदगी अतीतजीवी होकर
आगे नहीं बढ़ती, पहाड़ देखने में
या यूं कहें सपने में तो अच्छे लगते हैं,
पर इन्हे झेलना सचमुच कठिन है।
बैकग्राउंड मजबूत नहीं हो पाने के
कारण मैं तो बहुत कुछ नहीं कर
पाया, लेकिन बच्चों को वह
सबकुछ देना है जो मुझे
नहीं मिला।
हां उम्र की आखिरी ढलान पर
सारी जिम्मेदारी निभाकर
अपने गांव में फिर बस जाउंगा। तब
न मुझे कमाने की चिंता होगी, न
भविष्य की। बस किसी तरह
जिस जगह जन्म लिया वहीं पर
खाक भी हो जाऊं।
----------॥॥॥॥
------------॥॥॥॥॥॥॥-------
अब उम्र उस मुकाम पर भी पहुंच गई
है। जो सपने देखे थे वो आधे अधूरे ढंग
से पूरे भी हो गए हैं। पहाड़ आज
भी यादों में सताता है, सच
मानो तो दर्द अब कुछ
ज्यादा ही बढ़ गया है। पर, फिर
कहीं कुछ बदल गया है। नयार, हेंवल
और रवासन, भागीरथी,
गंगाजी में अब तक
कितना ही पानी बह चुका है।
एक तो शरीर कमजोर हुआ है-
ब्लडप्रेशर, डायबटीज
जैसी शहरी बीमारियां शरीर
में घर कर गई हैं। पहाड़ की उतार
चढ़ाव से घुटने में भी दर्द उभर
आता है। मैं तो फिर भी यह सह लूं,
पर ‘मिसेज’ का क्या करुं। वह
तो सड़ी गरमी में भी ‘फ्लैट’
छोड़ने को तैयार नहीं। उसके पास
कई तर्क हैं, बीमारी, मौसम और
सबसे बड़ा घर खाली छोड़ने पर
चोरी का। बंद घरों में
चोरी की खबर वह कुछ
ज्यादा ही जोर से पढ़ती है। कई
बार मैं भी खुद को उसके तर्क से
सहमत पाता हूं, जब वह कहती है
कि पहाड़ में शौचालय तक
का इंतजाम नहीं है।
वहां ताजा बाजारू सब्जी और
फल के लिए भी कोटद्वार,
ऋषिकेश जाने वाले टैक्सी वाले
की चिरौरी करनी पड़ती है।
और फिर तबियत अचानक
बिगड़ने पर अच्छे डॉक्टर कहां हैं,
‘धार -खाल’ के सरकारी डॉक्टर
के भरोसे भला गांव में रहने
का रिस्क लें। वह खुद के बजाय मुझे
मेरी तबीयत का हवाला देकर
रोक लेती है।कई बार सोचता हूं
कि गांव में कम से कम दो कमरे और
एक शौचलय का पक्का मकान
बना दूं। कोई नहीं भी आए तो मैं
खुद ही जाकर महीने दो महीने
बिता आऊं। भतीजे की ‘ब्वारी’
दो रोटियां तो दे ही देगी,
हमारी फुंगड़ी भी तो वही लोग
खा रहे हैं। पर डरता हूं कि मैं
तो बीमारियों का भोजन हूं,
साल दो साल ही और इस
धरती का वासिंदा हूं। मेरे पीछे
गांव के मकान
की क्या उपयोगिता, मेरे बाद
बच्चे मुझे कोसेंगे ही। इस कशमकश
में दिन तेजी से बीत रहे हैं, और
मेरी बैचेनी भी।मैं अब
भी दुविधा में झूल रहा हूं। यहां में
‘अजनबी’ हूं तो वहां पर ‘अनफिट’।
मुझे पहाड़ में दिल्ली की ऐश
चाहिए, पर यह संभव नहीं।
आखिर वह पहाड़ है,
दिल्ली नहीं। बस अब
कभी कभी डीवीडी पर
गढ़वाली गाने बजा कर खुद
को तृप्त कर लेता हूं। घर में
गढ़वाली बोली पर नियंत्रण
रखने वाला मैं अकेला व्यक्ति हूं,
बाकि सब ‘कटमाली’ हैं।
गढ़वाली गाने सुनते वक्त मैं एक
भाषायी अल्पसंख्यक की तरह
भय महसूस करता हूं।
मै पक्का कर चुका था कि एक
दिन फिर इन हरे भरे
जंगलों कोहरे से लिपटे पहाड़ों में
फुरसत के दिन बिताऊंगा। मैं
दृढ़संकल्प था कि फिर से काफल,
आम, जामुन के पेड़ों पर चढ़कर
रसीले फलों का जमा लूंगा।
आज 45 बरस बाद मेरा यह संकल्प
बस सपना बन कर रहा गया।
ना दौड़ ना दौड मैं अब
भी सुनता हूं। यह गीत अब मुझे
धिक्कारता है।
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